वरिष्ठ पत्रकार और कई बड़े अखबारों में काम कर चुके अनेहस शाश्वत अवध के इलाके (सुल्तानपुर) के एक लब्ध प्रतिष्ठ परिवार के सदस्य हैं, जिसके सदस्यों का राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि, घुमंतू स्वभाव, मस्तमौला प्रवृत्ति और अवध के उदार वातावरण की वजह से शाश्वत जी के पास अनुभवों का ज़खीरा और चीज़ों को एक निश्चित नजरिए से देखने का हुनर भरपूर है।
अनेहस शाश्वत। बात खान–पान की है और इलाका अवध का तो पहले एक किस्सा सुनिए। ज़माना था नवाब वाजिद अली शाह का, उन्हीं के समय में दिल्ली के बादशाह के शहजादे भी दिल्ली की झंझटों से दूर लखनऊ में शांतिपूर्वक रह रहे थे। दोनों ही दो नायाब सभ्यताओं के प्रतीक थे, जिसका दोनों को ही गुमान था। एक दिन शहजादे ने वाजिद अली शाह को दावत दी। एक से एक नायब चीज़ें खाने में परोसी गईं, उनमें से कुछ ऐसी थीं, जो देखने में कुछ लग रहीं थीं, लेकिन खाने पर कुछ और ही निकल रही थीं। जब नवाब साहब कई बार धोखा खा चुके, तो शहजादे ने मुस्करा कर कुछ मीठा खाने की गुजारिश की। वाजिद अली शाह को आंवले के मुरब्बे एक तश्तरी में दिखे, जब उन्होंने खाया तो फिर धोखा खा गए, वह गोश्त का नमकीन मुरब्बा निकला।
धोखा न खा जाएँ इसलिए थे चौकन्ने
खैर हंसी–खुशी के माहौल में दावत ख़त्म हुई, लेकिन शाह को धोखा खाने का मलाल रह गया। कुछ अरसे बाद नवाब साहब ने शहजादे को खाने पर बुलाया। धोखा दे चुके शहजादे धोखा न खा जाएँ इसलिए खासे चौकन्ने भी थे। बहरहाल दावत शुरू हुई और तमाम चीज़ें सामने चुन दी गईं। देखने में गोश्त, बिरयानी, कबाब, मिठाई और तमाम चीज़ें सामने थीं लेकिन शहजादे साहब ने जो भी खाया वो मीठा निकला क्योंकि वो सब खालिस शक्कर से बनी थीं और अबकी धोखा खाने की बारी शहजादे की थी।
धोखा मैंने भी खाया
ख़ैर ये किस्सा तो नवाबीन का रहा, मेरी ऐसी किस्मत कहाँ जो इतने धोखे खाता, लेकिन धोखा मैंने भी खाया और जितने दिन भी खाया नायाब खाया। मेरी दादी भी अवध के ही इलाके सीतापुर के एक ज़मींदार घराने की थीं, सो खाने पीने की नायाब चीज़ें बनाने और खिलाने का हुनर उनमें बाखूबी था, जो आज भी इस इलाके के संपन्न घराने की महिलाओं में पाया जाता है। दादी तरह-तरह के हलवे, पकौड़ियाँ, पुए, तरकारियाँ और कई तरह के पकवान बनाती थीं जो हम लोग अक्सर खाते थे और उनके जाने के बाद ख़ास तौर मैं उन चीज़ों के लिए तरसता हूँ। ऐसा नहीं कि वो कोई बहुत ख़ास किस्म के पकवान होते थे। संपन्न और परम्परागत घरों में अभी भी वे चीज़ें बहुतायत से पकाई-खाई जाती हैं लेकिन मैं इतना सौभाग्यशाली नहीं हूँ।
धोखा और पोस्ते का हलवा दोनों याद आते हैं
दादी जो चीज़ें बनाती थीं, उनमें से दो का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ एक था धोखा और दूसरा था पोस्ते के दानों का हलवा। धोखा और कुछ नहीं बेसन से बनी एक डिश होती है जो देखने में भुने हुए मसालेदार आलुओं जैसी लगती है, इसे सब्जी के तौर पर तो खाया ही जाता है, चाय के साथ स्नैक्स के रूप में भी इसका सेवन मजेदार होता है। जो साहबान इस डिश से परिचित नहीं हैं वे देखने और उसके बाद खाने पर पक्का धोखा खायेंगे। इसी वजह से इस डिश का नाम ही धोखा है।
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दूसरा पकवान जो दादी बनाती थीं वो पोसते के दानों का हलवा था। बड़ी देर तक मद्धिम आंच में भुनने के बाद जब मेवों पड़ा वो हलुआ तैयार होता था, तो उस स्वाद का बखान करने में मैं असमर्थ हूँ। मेरी उम्र कम थी इसलिए ये चीज़ें कैसे बनाई जाती थीं ये तो मैं नहीं बता पाऊंगा, लेकिन ये मुझे याद है कि इन पकवानों को बनाना बड़ी मेहनत और धैर्य का काम था, जिसको दादी बड़े मनोयोग से करती थीं। दादी अब भी बहुत याद आती हैं, साथ ही उनके बनाए पकवान भी।
दादी की याद दिला दी तुमने। वापस तो ला नहीं सकते उनको। मगर खुद को भाग्यशाली समझती हूँ क्योंकि आजकल “धोखा” तो “धोखा” ऐसी दादियाँ भी नहीं दिखतीं।