नोयडा निवासी साधना श्रीवास्तव का बचपन लखनऊ में बीता। साधना बीते तीन दशक से भी ज्यादा समय से बतौर साइकोलोजिस्ट / स्पेशल एजुकेटर काम कर रही हैं। “मेंटल रिटार्डेशन ऐन्ड स्पेशल एजुकेशन” में ख्यातिलब्ध साधना इस ट्रेनिंग में अपने समय की आल इंडिया टॉपर हैं। लखनऊ और फिर दिल्ली में इससे संबन्धित संस्थान में इन्होंने अपनी सेवाएँ दीं हैं। करियर के शुरुआती दौर में इन्होंने एक साल सामान्य स्कूल में भी शिक्षण कार्य किया है। बच्चों का विकास और उनका व्यवहार इनके लिए एक संजीदा मसला है। कहती हैं, बढ़ते बच्चों का व्यवहार बहुत कुछ बताता है। जरूरत होती है उस पर समझदारी से ध्यान देने की। अगर समझदारी से उस पर ध्यान दिया जाए तो बहुत सी होने वाली परेशानियों से बचा जा सकता है। साधना जी को पेंटिंग का भी शौक है।
बचपन की यादें! बहुत अनमोल, बहुत मीठी… शेयरिंग इज़ केयरिंग का फलसफा हम भाई बहनों के बीच स्वतः ही था। शरारतें बहुत होती थीं और एक दूसरे की परवाह भी। हर काम मिल-बांटकर कर लेना और सबकी ज़रूरत का ध्यान रखना, कभी अम्मा (माँ) को इसके लिए टोकना नहीं पड़ा।
हम पाँच भाई बहन हैं। दो बहनें मुझसे बड़ी हैं। हम जैसे-जैसे बड़े होते गए, माँ के साथ दोनों बड़ी बहनों ने भी रसोई में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। मेरा झुकाव इस तरफ कम रहा। या यूं कहें दोनों बड़ी बहनों ने इसकी ज़रूरत महसूस नहीं होने दी। इसीलिए बहुत जरूरत होने पर ही मेरा रुख रसोई की तरफ होता। मुझे घर की साज-सजावट का शौक बचपन से ही रहा है। मैं इसमें लगी भी रहती थी।
बचपन के नाश्ते और भाई-बहनों का प्यार
हाँ, शादी के बाद रसोई के काम और जिम्मेदारियाँ कब दिनचर्या में उतरते चले गए पता नहीं चला। छोटी बहन सबका हाथ बंटाती थी इसलिए वो हर काम उतनी ही लगन से करती है। भईया भी सबके साथ लगे रहते थे। क्या हो रहा है – क्या बन रहा है वाले अंदाज़ में। साथ में उनके विचार और बढ़िया या कभी मजेदार आइडिया जो आज भी कायम है। कुल मिलाकर हँसी-खुशी और मिल-बाँटकर रहने वाला माहौल। इस माहौल के बीच दोनों बड़ी बहनों ने व्यंजनों की नई-नई तैयारी करते हुए सनडे के दिन सुबह-शाम का स्पेशल नाश्ता फिक्स किया।
क्योंकि रोज स्कूल जाना रहता था। स्कूल से आकार होमवर्क और फिर संगीत की शिक्षा ज्यादा वक्त नहीं रहता था रसोई में देने के लिए। इसलिए सनडे का दिन फिक्स किया गया। सुबह गरमागरम मीठी चाय, छोटी छोटी नमकीन पूरी और लाल मिर्च का अचार। शाम को छोले इमली की चटनी के साथ। यह सबको इतना पसंद था कि काफी लम्बे समय तक हर सनडे यही क्रम चलता रहा। गरमागरम मीठी चाय और नमकीन पूरी सुषमा जिज्जी बनाती थीं। आटे में नमक, मंगरैल (कलौंजी) और घी का मोयन डालकर गूथती थीं। फिर एक बड़ी लोई बनाती थीं। उसे चकले पर रख कर बड़ी सी रोटी की तरह बेल लेती थीं। छोटी गोल कटोरी से पूरी उसमें से काटती थीं। और फिर कड़ाही में घी गरम करके उसमें तलकर देती थीं।
मैं बड़े स्वाद से सुबह के नाश्ते का लुत्फ़ लेकर उसे खाती थी। सुबह से ही इस नाश्ते का इंतज़ार रहता था। और पाँच भाई-बहनों को सबसे ज्यादा तो रहता था कि सबको बराबर मिल जाए मेरे हिस्से की एक भी पूरी कम न हो। पर सब मिल – बाँट कर ही खाते थे। शाम का जिम्मा संभालती थी मेरी सुधा जिज्जी उनके हाथ के छोले सनडे को आने वाली टीवी फिल्म के इंटरवल में मिलने का इंतज़ार रहता था। अब तो छोले सब्जी की तरह खाये जाते हैं।
उस दौर में डी डी नेशनल पर आने वाली सनडे मूवी के इंटरवल में नाश्ते की तरह खाते थे, मीठी इमली की चटनी डालकर। इसके साथ ही अम्मा के हाथ के दही बड़े जिसको खाने के लिए हम सब त्योहारों का इंतज़ार करते थे। और होली में बनने वाली गुझिया, मीठे खुरमें जिसको तब कनस्तर में बंद करके रख दिया जाता था। आठ दिन मेहमानों को खिलाने के लिए। हम लोग मौका ढूंढ़ते थे कब मेहमान आयें और कनस्तर खुले और हमें भी निकालने का मौका मिले। बचपन की यादें और पकवान बहुत हैं इसमें डूबते हुए अच्छा लग रहा है पर लिखने का तरीका… पता नहीं…