मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की निवासी ज्योति सिंह राठौड़ वर्तमान में दिल्ली स्थित एक ट्रेड एसोशिएशन में बतौर असिस्टेंट सेक्रेटरी जनरल कार्य कर रही हैं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अनवर जमाल किदवई मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर से कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म में परास्नातक ज्योति को पाँच वर्ष से अधिक समय का प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में कार्य करने का अनुभव है। वर्ष 2006 में एंशिएंट हिस्ट्री आर्कियोलॉजी एंड कल्चर में परास्नातक ज्योति को आर्कियोलॉजी के लिए स्वर्ण पदक सम्मानित किया जा चुका है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी ज्योति एक स्थापित प्रोफेशनल फोटोग्राफर भी हैं।
बचपन… याद आते ही जीवन के सबसे खुशनुमा दौर की यादें आँखों के सामने तैरने लगती हैं। निश्चित ही ये जीवन का सबसे बेफ़िक्री वाला समय होता है। बावजूद इसके, बचपन की तमाम अच्छी-बुरी, खट्टी-मीठी घटनाएँ हमारे दिल-ओ-दिमाग में सदा-सदा के लिए बस जाती हैं। आप सभी की तरह मेरे पास भी बचपन की यादों का भरपूर खजाना है। अमिका दीदी…साइट में ऐसा कॉलम शुरू करने और हमको हमारी यादें सबके साथ साझा करने के लिए धन्यवाद और धन्यवाद इसलिए भी कि आपके इस कॉलम ने हमको मौका दिया कि हम कुछ समय अपने लिए निकालें, बचपन की यादों के समंदर में एक बार फिर से गोता लगाएँ।
वरना, आज जिम्मेदारियाँ पूरी करने की जिद्दोजहद में व्यक्ति के पास अपने लिए समय ही कहाँ बचा है। जबसे जिम्मेदार हुये वो बेफ़िक्री, खुशियाँ, उल्लास, अल्हड़पन, मस्ती जाने कहाँ गुम हो गया है। आज कितने साल हो गए उस खुशी के साथ जीये हुये। जब भी वो दिन याद आते हैं तो अंदर से आवाज़ आती है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन…”।
बहुत सुखी थे माता-पिता के राज में। किसी ने क्या खूब कहा है, “जब लगे पैसा कमाने तो समझ आया, शौक तो माँ-बाप के पैसों से पूरे होते थे, अपने पैसों से तो सिर्फ जरूरतें पूरी होती हैं”। अब तो आलम यह है कि आप एक फिक्र से निपट पाये नहीं कि नयी ‘बोल्ड लेटर्स’ में आपके सामने होती है। ख़ैर, यह सब बातें फिर कभी, अभी एक कोशिश करती हूँ अपने बचपन की यादें आप सब तक पहुंचाने की।
मुझे बचपन से ही सभी त्योहारों में सबसे अच्छा त्योहार दशहरा लगता था। कारण क्या था पता नहीं। जब समझदार हुए तब जवाब मिला। हम जब बहुत छोटे थे तो पिताजी माँ को पैसा दिया करते थे यह कहकर कि दशहरा आने वाला है बच्चों को नए कपड़े दिलवा दो। हम कई भाई-बहन हैं, मैं सबकी बात नहीं कर रही इस बार सिर्फ अपनी बातों से अवगत कराती हूं। पिता जी ने हमें खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पिताजी दशहरा की रात कैसे भी भाग कर आफिस से घर आते थे। उस वक़्त हमारे पास एक वेस्पा स्कूटर था जिस पर शायद चार लोग बहुत मुश्किल से बैठ पाते थे।
जब भी पापा आते थे हम बहनों का ग्रुप तैयार रहता था, यह सोच कर कि हम घूमने जाएंगे। आज हम अपनी मर्जी का खाएंगे। साथ ही, हमें हमारी मर्जी के खिलौने मिलेंगे। उस दिन पापा हमें किसी चीज़ के लिए नहीं रोकते थे। जो लेना है ले लो… जो खाना है खाओ। शायद ये त्योहार मुझे बचपन से इसीलिए भाया। बड़ी शांति, जीत और उल्लास का त्योहार है यह।
मुझे आज भी याद है माँ को उस रात खाना नहीं बनाना पड़ता था। हमें वह वक़्त रहते तैयार करती थीं। सब बच्चे नए कपड़े पहनते थे। कहा जाता है कि मेरे पिता ने ही मुझे बिगाड़ा है। बचपन में मुझे फ़्रॉक पहनना पसंद नहीं था। इस कारण से पिताजी, माँ से मुझे नया पैंट-शर्ट दिलवाने के लिए बोलते थे। मुझे पैंट-शर्ट का शौक मेरे पिता ने दिया। कहने का मतलब यह है कि उन्होंने मेरी हर ख़्वाहिश को मंजूरी दी है। हमेशा तो नहीं पर जब भी हुआ उन्होंने हमको नए कपड़े दिलवाए। कुल मिलाकर पूरे साल में हमें पाँच-छह सेट नए कपड़े मिल ही जाते थे। किन-किन परेशानियों से जूझते हुये उन्होंने हमें पाला है, मेरे लिए शब्दों में व्यक्त कर पाना बेहद मुश्किल है।
वापस आते हैं अपने त्योहार दशहरा और अपनी पसंदीदा डिश पर। दशहरा की रात हम लोग जय राम टिकिया वाले के ठेले से टिकिया खाते थे और घर लेकर भी आते थे। उसकी टिकिया की खास बात उसके वह छोले और इमली की चटनी होती थी। जय राम टिक्की वाले की टिक्की का स्वाद इतना लाजवाब था कि अक्सर ऐसा होता था हम लोग इतनी टिक्की खा लेते कि खाना खाने की जगह ही नहीं रहती। दूसरे शब्दों में कहें तो यह टिक्की डिनर की जगह ले लेती।
उस टिक्की का स्वाद मेरे जेहन में इस तरह ताज़ा है कि सिर्फ याद करने से ही मेरे मुंह में पानी आ गया। मन कर रहा है कि अभी उसके ठेले के पास जाऊं और बोलूं भैया एक टिकिया देना। जय राम भी हमारे परिवार के सदस्यों को बाखूबी पहचानता था। हम तीन जार का टिफ़िन बॉक्स उसके पास ले जाते थे। पहले में टिक्की भरता था। दूसरे और तीसरे में छोला और अलग से पन्नी में फुलकी, पानी और इमली की चटनी।
उसके सारे सामग्री में इतना स्वाद था की वह बनाये या उसको अलग-अलग रूप देकर हम बनायें स्वाद वही का वही। फिर जब हम टिफ़िन भर कर टिक्की और छोला लाते थे तब माँ उसको टमाटर के साथ गर्म करके हमें गरम गरम पूरियों के साथ परोसती थीं। वह स्वाद अनोखा था क्योंकि माँ बची हुयी फुलकी भी उसी में फोड़ दिया करती थीं।
जय राम टिक्की वाले का ठेला तो हमेशा बेतिया हाता की गलियों में ही दिखता था पर दशहरा के दिन उसके ठेले पर ऐसी भीड़ लगती मानो पूरा शहर राम लीला मैदान में उसकी टिक्की खाने को उमड़ आया हो। उसकी दशहरा वाली टिक्की की बात अलग इसलिए थी क्योंकि साढ़े चार रुपये की दो टिक्की होती थी। चूंकि वह पचास पैसा वापस नहीं कर पाता था सो वह पचास पैसे की हमें चार फुलकी जरूर खिलाता था।
जब बड़े तवा पर बड़े-बड़े आलू की पीठी उसमें छोला, फिर नमक, मसाला, आमचूर, और इमली की चटनी के साथ उसको पीस कर उसका चाट तैयार होता था लगता था कब वह हमारे पत्ते के डोंगे में आये और उसका स्वाद लेकर हमको जन्नत का एहसास हो। यादें ताजा तो हुई पर बड़े दिन हो गए ऐसे टिक्की खाये हुए। उसकी बात ही कुछ अलग थी।