अध्यापिका, व्यंग्यकार और लेखक अलका चित्रांशी को पशु-पक्षियों से बेहद लगाव है। बागवानी और खान-पान में नित नए प्रयोग भी इनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं। खाली समय में संगीत सुनना और देश-दुनिया का साहित्य पढ़ना पसंद करती हैं। इनका मानना है कि प्रकृति की सेवा, सुरक्षा और सम्मान करना हर व्यक्ति का पहला कर्तव्य होना चाहिए। इसके बिना सार्थक और सुरक्षित तरक्की कर पाना असम्भव सा है।
अलका चित्रांशी। हर व्यक्ति के जीवन में उसके बचपन की यादों का एक पिटारा होता है। जिसे खोलते ही दुःखी से दुःखी व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान तैर जाती है। बचपन ही तो ऐसा समय होता है हमारे जीवन में जो आज के समय में हर व्यक्ति फिर से जीना चाहता है।
बचपन की यादें जिसमें शरारतें, लड़ाई-झगड़े, खेल-खिलौने, गर्मी की छुट्टी में सभी का नानी के घर इकट्ठा होना, आम की बाग में घूमना और तरह-तरह के व्यंजन का लुत्फ उठाना बहुत सी यादें हैं। इन सब से अलग हमारी खाने से जुड़ी बहुत सी यादें हैं साझा करने के लिए।
बचपन में हम बच्चों को भाग्यवश माँ, नानी, मौसी, ताई, बुआ के हाथों से बने एक से एक व्यंजन खाने का सौभाग्य मिला, जिनका स्वाद अनूठा होता था। किसी के हाथ से बने फरे, रिकवंच (घुइयाँ के पत्तों की पकौड़ी), मूली की टिक्की, बेसन का हलवा, मटर का निमोना ऐसे व्यंजन हैं जो बनते तो आज भी हैं, लेकिन उन हाथों से बने होने का जादू कुछ अलग ही था। आज उनमें वो स्वाद नहीं आता।
इन सब से अलग खाने को लेकर हमारी कुछ यादें ऐसी हैं कि जब हम सब भाई-बहन इकट्ठा होते हैं तो उन्हें याद कर हम सब बहुत हंसते हैं, क्योंकि कई बार बचपन में जब मम्मी किसी कार्यवश घर पर नहीं होती तो रसोईघर हमारी प्रयोगशाला बन जाती। जिन्हें याद कर आज हम सब हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं।
एक बार की बात है मम्मी-पापा को कहीं जाना था तो मम्मी ने नाश्ता और दोपहर का खाना बना कर रख दिया और यह कह कर कि शाम को वापस आ जाएंगे वे लोग चले गए लेकिन कार्य न होने कि वजह से उन्हें वापस आने में लगभग दो दिन लग गए। इन दो दिनों में हमने कई नए व्यंजन ईजाद कर डाले।
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इनमें से लगभग सभी ऐसे कि जिन्हें खाने कि दोबारा इच्छा न हुई। हाँ, इन सबके बीच हमें एक ऐसा व्यंजन मिला जिसे हमने बचपन में खूब बना कर खाया, जब मम्मी घर पर नहीं होती।
इसकी ईजाद ऐसे हुई कि एक बार मम्मी घर पर नहीं थीं हमारे दादा (बड़े भाई) को कुछ मीठा खाने का मन हुआ, अब बनायें क्या हलवा बनाना आता नहीं था, खीर पकने में समय बहुत लगता है और वो भी पकानी कहाँ आती थी। सबका माथा खराब हो चुका था। मन मार के दो मिनट में पकने वाले नूडल्स पर आम सहमति बनी तो भाई घर के पास की दुकान से नूडल्स के पैकेट ले आए।
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उसे बनने के लिए जैसे ही गैस पर पानी का बर्तन रखा सभी के दिमाग में ख़ुराफाती ख्याल एक साथ आया कि अगर नूडल्स पानी में पका सकते हैं तो दूध में क्यों नहीं और मसाले कि जगह चीनी। फिर क्या था हम सबने इस नायाब हमारी ईजाद, नूडल्स सेवई का भरपूर मजा उठाया। इस नायाब सेवई की याद आज भी हमें हँसाती गुदगुदाती है।